बहुत शर्मिंदा हूँ इबलीस से मैं
ख़ता मेरी सज़ा उस को मिली है
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मेरी रुस्वाई में वो भी हैं बराबर के शरीक
सुपुर्दगी का वो लम्हा कभी नहीं गुज़रा
आँखें न खुलें नूर के सैलाब में मेरी
कैसे गुज़र सकेंगे ज़माने बहार के
कितनी बे-नूर थी दिन भर नज़र-ए-परवाना
जिस के बाइस अभी ठंडक है मिरे सीने में
जल भी चुके परवाने हो भी चुकी रुस्वाई
दिल बहुत मसरूफ़ था कल आज बे-कारों में है
दिन निकलते ही वो ख़्वाबों के जज़ीरे क्या हुए
पैकर-ए-गुल आसमानों के लिए बेताब है
सोता जागता साया
अजनबी शहरों में तुझ को ढूँढता हूँ जिस तरह