बैठा ही रहा सुब्ह से में धूप ढले तक
साया ही समझती रही दीवार मुझे भी
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चुप के आलम में वो तस्वीर सी सूरत उस की
तुम कहे जाते हो ऐसी फ़स्ल-ए-गुल आई नहीं
तुम्हारी आँख में कैफ़िय्यत-ए-ख़ुमार तो है
लगे थे ग़म तुझे किस उम्र में ज़माने के
सब्त है चेहरों पे चुप बन में अंधेरा हो चुका
मैं चाहता हूँ हक़ीक़त-पसंद हो जाऊँ
कुछ तेरे सबब थी मिरे पहलू में हरारत
पुराने दोस्तों से अब मुरव्वत छोड़ दी हम ने
हर तरफ़ फैली हुई थी रौशनी ही रौशनी
सुपुर्दगी का वो लम्हा कभी नहीं गुज़रा
तुम्हारी आरज़ू में मैं ने अपनी आरज़ू की थी
पैरहन चुस्त हवा सुस्त खड़ी दीवारें