तुम कहे जाते हो ऐसी फ़स्ल-ए-गुल आई नहीं
और अगर मैं ये कहूँ सौ बार ऐसा हो चुका
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अगर दो दिल कहीं भी मिल गए हैं
वो मिरी सुब्हों का तारा वो मिरी रातों का चाँद
किस लिए वो शहर की दीवार से सर फोड़ता
आज तक उस की मोहब्बत का नशा तारी है
वो ख़ुश-नसीब थे जिन्हें अपनी ख़बर न थी
आप भी नहीं आए नींद भी नहीं आई
दिल सा वहशी कभी क़ाबू में न आया यारो
ख़बर नहीं कि ख़ला किस जगह पे हो मौजूद
आरज़ू की बे-हिसी का गर यही आलम रहा
न बस्तियों को अज़ीज़ रक्खें न हम बयाबाँ से लौ लगाएँ
इक आग फिर भड़क उट्ठी है दीदा ओ दिल में
उदास छोड़ गए कश्तियों को साहिल पर