आरज़ू की बे-हिसी का गर यही आलम रहा
बे-तलब आएगा दिन और बे-ख़बर जाएगी रात
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बस यही होगा कि दीवाना कहेंगे अहल-ए-बज़्म
सारी मख़्लूक़ तमाशे के लिए आई थी
चाहता हूँ कि हो परवाज़ सितारों से बुलंद
जाने किस सम्त से हवा आई
ज़मीं अपने लहू से आश्ना होने ही वाली है
लेते हैं लोग साँस भी अब एहतियात से
सफ़र भी दूर का है और कहीं नहीं जाना
तेरे सीने में भी इक दाग़ है तन्हाई का
थोड़ा सा रंग रात के चेहरे पे डाल दो
तुम ही क्या जज़्ब हो गए मुझ में
कोशिश है शर्त यूँही न हथियार फेंक दे
दिल पे ऐ दोस्त क़यामत सी गुज़र जाती है