दिल पे ऐ दोस्त क़यामत सी गुज़र जाती है
तुम निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ से देखा न करो
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दिल बहुत मसरूफ़ था कल आज बे-कारों में है
बस एक लम्हे में क्या कुछ गुज़र गई दिल पर
हैराँ हूँ हासिदों को पता कैसे चल गया
इक आग फिर भड़क उट्ठी है दीदा ओ दिल में
जल भी चुके परवाने हो भी चुकी रुस्वाई
न मिले वो तो तलाश उस की भी रहती है मुझे
अब तो इंसान की अज़्मत भी कोई चीज़ नहीं
अब अपने चेहरे पर दो पत्थर से सजाए फिरता हूँ
टकराता है सर फोड़ता है सारा ज़माना
वो कौन है उसे सूरज कहूँ कि रंग कहूँ
अजब नहीं कि इसी बात पर लड़ाई हो
उट्ठी हैं मेरी ख़ाक से आफ़ात सब की सब