टकराता है सर फोड़ता है सारा ज़माना
दीवार को रस्ते से हटाता नहीं फिर भी
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वो मुझे प्यार से देखे भी तो फिर क्या होगा
आती है दम-ब-दम ये सदा जागते रहो
दिल-ए-फ़सुर्दा उसे क्यूँ गले लगा न लिया
जहाँ में मंज़िल-ए-मक़्सूद ढूँडने वाले
कभी कभी छलक उठता है आब ओ रंग उन का
मंज़िल है कठिन दिल बहुत आराम-तलब है
जिस ने तिरी आँखों में शरारत नहीं देखी
बस एक लम्हे में क्या कुछ गुज़र गई दिल पर
तुम्हारी बज़्म से भी उठ चले हैं दीवाने
छुप छुप के कहाँ तक तिरे दीदार मिलेंगे
मैं अकेला हूँ यहाँ मेरे सिवा कोई नहीं
हुस्न बाज़ार की ज़ीनत है मगर है तो सही