हुस्न बाज़ार की ज़ीनत है मगर है तो सही
घर से निकला हूँ तो उस चौक से भी हो आऊँ
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नक़्श-ए-हैरत बन गई दुनिया सितारों की तरह
मैं कि ख़ुश होता था दरिया की रवानी देख कर
दीवार किस तरफ़ से बढ़े कुछ ख़बर नहीं
कितनी बे-नूर थी दिन भर नज़र-ए-परवाना
अपने ही अक्स को पानी में कहाँ तक देखूँ
ये भी सच है कि नहीं है कोई रिश्ता तुझ से
चमक चमक के सितारो मुझे फ़रेब न दो
ये और बात इसे ज़िंदगी न कह पाएँ
सितारे इस क़दर देखे कि आँखें बुझ गईं अपनी
जैसे मुँह-बंद कली रात के वीराने में
हर दम तिरी शबीह थी आँखों के सामने