हम जो दस्तक कभी देते थे सबा की मानिंद
आप दरवाज़ा-ए-दिल खोल दिया करते थे
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इस दोशीज़ा मिट्टी पर नक़्श-ए-कफ़-ए-पा कोई भी नहीं
यूँ किस तरह बताऊँ कि क्या मेरे पास है
हज़ार चेहरे हैं मौजूद आदमी ग़ाएब
कौन कहता है कि दरिया में रवानी कम है
आज तक उस की मोहब्बत का नशा तारी है
मैं और तू
सेहर लगता है पसीने में नहाया हुआ जिस्म
दुनिया में अंधेरों के सिवा और रहा क्या
मंज़िल पे जा के ख़ाक उड़ाने से फ़ाएदा
मंज़िल है कठिन दिल बहुत आराम-तलब है
बस यही होगा कि दीवाना कहेंगे अहल-ए-बज़्म
इसी बाइस ज़माना हो गया है उस को घर बैठे