मंज़िल है कठिन दिल बहुत आराम-तलब है
क्यूँ याद मुझे आते हो ऐ भूलने वालो
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सितारे इस क़दर देखे कि आँखें बुझ गईं अपनी
मैं तिरा कुछ भी नहीं हूँ मगर इतना तो बता
बिगड़ी हुई इस शहर की हालत भी बहुत है
कितनी बे-नूर थी दिन भर नज़र-ए-परवाना
वीरान तो नहीं शब-ए-तारीक की फ़ज़ा
शौक़-ए-सफ़र बे-सबब और सफ़र बे-तलब
तेरे सीने में भी इक दाग़ है तन्हाई का
हमारे पेश-ए-नज़र मंज़िलें कुछ और भी थीं
भरपूर नहीं हैं किसी चेहरे के ख़द-ओ-ख़ाल
बस यही होगा कि दीवाना कहेंगे अहल-ए-बज़्म
रूह की आग
जहाँ में हम ने किसी से भी खुल के बात न की