बस यही होगा कि दीवाना कहेंगे अहल-ए-बज़्म
आप चुप क्यूँ हैं मिरी तर्ज़-ए-नवा ले लीजिए
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बस एक लम्हे में क्या कुछ गुज़र गई दिल पर
ख़ुद ही मिल बैठे हो ये कैसी शनासाई हुई
मंज़िल पे जा के ख़ाक उड़ाने से फ़ाएदा
कल थी ये फ़िक्र उसे हाल सुनाएँ कैसे
हर दम तिरी शबीह थी आँखों के सामने
खुली फ़ज़ा में अगर लड़खड़ा के चल न सकें
कम नहीं है ये अज़िय्यत कि अभी ज़िंदा हूँ
न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे
मैं चाहता हूँ हक़ीक़त-पसंद हो जाऊँ
गुज़रने ही न दी वो रात मैं ने
इबलीस भी रख लेते हैं जब नाम फ़रिश्ते
नक़्श-ए-हैरत बन गई दुनिया सितारों की तरह