दुनिया में अंधेरों के सिवा और रहा क्या
इक तेरी तमन्ना सो चराग़-ए-सहरी है
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गामज़न
शायद लोग इसी रौनक़ को गर्मी-ए-महफ़िल कहते हैं
हाल उस का तिरे चेहरे पे लिखा लगता है
बे-शुमार आँखें
टकराता है सर फोड़ता है सारा ज़माना
न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे
लेते हैं लोग साँस भी अब एहतियात से
ख़बर नहीं कि ख़ला किस जगह पे हो मौजूद
हुज़ूर-ए-हुस्न ये दिल कासा-ए-गदाई है
छुप छुप के कहाँ तक तिरे दीदार मिलेंगे
ये किस ग़म से अक़ीदत हो गई है
जो शजर सूख गया है वो हरा कैसे हो