डूब जाता है दमकता हुआ सूरज लेकिन
मेहंदियाँ शाम के हाथों में रचा देता है
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खुले असरार उस पर जिस्म के आहिस्ता आहिस्ता
तेरे घर की भी वही दीवार थी दरवाज़ा था
दरिया कभी इक हाल में बहता न रहेगा
ऐ सुब्ह की किरन मुझे प्यारी है तू बहुत
तिरी तलाश तो क्या तेरी आस भी न रहे
चुप के आलम में वो तस्वीर सी सूरत उस की
जुलते हैं इक चराग़ की लौ से कई चराग़
हमारे शहर में है वो गुरेज़ का आलम
उट्ठी हैं मेरी ख़ाक से आफ़ात सब की सब
ख़ल्क़ बे-परवा ख़ुदा बंदों से तंग आया हुआ
दस बजे रात को सो जाते हैं ख़बरें सुन कर
कुछ तज़किरा-ए-हुस्न से रौशन थे दर-ओ-बाम