दस बजे रात को सो जाते हैं ख़बरें सुन कर
आँख खुलती है तो अख़बार तलब करते हैं
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तख़्ता-ए-दार पे चाहे जिसे लटका दीजे
मुझे बस इतनी शिकायत है मरने वालों से
ख़ुशा वो दर्द के लम्हे कि तेरे जाने पर
न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे
बे-हुनर हाथ चमकने लगा सूरज की तरह
मैं तिरा कुछ भी नहीं हूँ मगर इतना तो बता
जब चल पड़े तो बर्क़ की रफ़्तार से चले
आरज़ू की बे-हिसी का गर यही आलम रहा
सितारे इस क़दर देखे कि आँखें बुझ गईं अपनी
तिरी तलाश तो क्या तेरी आस भी न रहे
ख़िज़ाँ जब आए तो आँखों में ख़ाक डालता हूँ
रूह की आग