हमारे शहर में है वो गुरेज़ का आलम
चराग़ भी न जलाए चराग़ से कोई
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ज़रा लबों के तबस्सुम से बज़्म गर्माएँ
आँखें न खुलें नूर के सैलाब में मेरी
कोशिश है शर्त यूँही न हथियार फेंक दे
लोग ज़िंदा नज़र आते थे मगर थे मक़्तूल
कौन कहता है कि दरिया में रवानी कम है
बैठा ही रहा सुब्ह से में धूप ढले तक
आरज़ूओं ने कई फूल चुने थे लेकिन
जब आफ़्ताब न निकला तो रौशनी के लिए
बस यही होगा कि दीवाना कहेंगे अहल-ए-बज़्म
मंज़िल पे जा के ख़ाक उड़ाने से फ़ाएदा
न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे
जिस को जाना ही नहीं उस को ख़ुदा क्यूँ मानें