आँखें न खुलें नूर के सैलाब में मेरी
हो रौशनी इतनी कि अंधेरा नज़र आए
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सूरज की किरन देख के बेज़ार हुए हो
दिल ओ नज़र पे तिरे बाद क्या नहीं गुज़रा
बिखरे हुए तारों से मिरी रात भरी है
देख अब अपने हयूले को फ़ना होते हुए
तन्हाई में आ जाती हैं हूरें मिरे घर में
मैं अपनी जाँ में उसे जज़्ब किस तरह करता
आज तक उस की मोहब्बत का नशा तारी है
ख़ुद ही तस्वीर बनाता हूँ मिटा देता हूँ
शहर का शहर अगर आए भी समझाने को
उट्ठी हैं मेरी ख़ाक से आफ़ात सब की सब
जाने किस सम्त से हवा आई
वो ख़ुश-नसीब थे जिन्हें अपनी ख़बर न थी