मैं अपनी जाँ में उसे जज़्ब किस तरह करता
उसे गले से लगाया लगा के छोड़ दिया
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सफ़र भी दूर का है और कहीं नहीं जाना
तुम्हारी आरज़ू में मैं ने अपनी आरज़ू की थी
ज़मीन नाव मिरी बादबाँ मिरे अफ़्लाक
आँखें न खुलें नूर के सैलाब में मेरी
उड़ते हुए आते हैं अभी संग-ए-तमन्ना
प्यार के रंग-महल बरसों में तय्यार हुए
ख़ुद ही मिल बैठे हो ये कैसी शनासाई हुई
लोग ज़िंदा नज़र आते थे मगर थे मक़्तूल
अन-कही
यादों की ज़ंजीरें
रात की नींदें तो पहले ही उड़ा कर ले गया
हैराँ हूँ हासिदों को पता कैसे चल गया