उट्ठी हैं मेरी ख़ाक से आफ़ात सब की सब
नाज़िल हुई न कोई बला आसमान से
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कितनी बे-नूर थी दिन भर नज़र-ए-परवाना
भूल कर भी कोई लेता नहीं अब नाम-ए-वफ़ा
सीने में बे-क़रार हैं मुर्दा मोहब्बतें
छोड़ने मैं नहीं जाता उसे दरवाज़े तक
दूर से देख के मैं ने उसे पहचान लिया
जो शजर सूख गया है वो हरा कैसे हो
ख़्वाहिशों की धूल से चेहरे उभरते ही नहीं
दिल सा वहशी कभी क़ाबू में न आया यारो
वो मिरे पास है क्या पास बुलाऊँ उस को
आरज़ूओं ने कई फूल चुने थे लेकिन
पैरहन चुस्त हवा सुस्त खड़ी दीवारें
रौशन भी करोगे कभी तारीकी-ए-शब को