रौशन भी करोगे कभी तारीकी-ए-शब को
या शम्अ की मानिंद पिघलते ही रहोगे
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हम कि इंसान नहीं आँखें हैं
चुप के आलम में वो तस्वीर सी सूरत उस की
दिल भी तो इक दयार है रौशन हरा-भरा
सेहर लगता है पसीने में नहाया हुआ जिस्म
अजनबी शहरों में तुझ को ढूँढता हूँ जिस तरह
दुनिया में अंधेरों के सिवा और रहा क्या
मुसाफ़िर हो तो सुन लो राह में सहरा भी आता है
इबलीस भी रख लेते हैं जब नाम फ़रिश्ते
अस्ल में हूँ मैं मुजरिम मैं ने क्यूँ शिकायत की
तिरी तलाश तो क्या तेरी आस भी न रहे
दिल-ए-फ़सुर्दा उसे क्यूँ गले लगा न लिया
दिल पर भी आओ एक नज़र डालते चलें