आँख उठा के मेरी सम्त अहल-ए-नज़र न देख पाए
आँख न हो तो किस क़दर सहल है देखना मुझे
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जिस के बाइस अभी ठंडक है मिरे सीने में
उम्र जितनी भी कटी उस के भरोसे पे कटी
तुम्हारी बज़्म से भी उठ चले हैं दीवाने
ख़ुद पर भी खोलिए न कभी दिल की वारदात
सूरज की किरन देख के बेज़ार हुए हो
बैठा ही रहा सुब्ह से में धूप ढले तक
इस दोशीज़ा मिट्टी पर नक़्श-ए-कफ़-ए-पा कोई भी नहीं
शम्अ जलते ही यहाँ हश्र का मंज़र होगा
देखने उस को कोई मेरे सिवा क्यूँ आए
तुझ पे जाँ देने को तय्यार कोई तो होगा
गोशा-ए-दिल की ख़मोशी का तमन्नाई मैं
कम नहीं है ये अज़िय्यत कि अभी ज़िंदा हूँ