ख़ुद पर भी खोलिए न कभी दिल की वारदात
आईना सामने हो तो चेहरा छुपाइए
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बैठा ही रहा सुब्ह से में धूप ढले तक
ठहर गई है तबीअत इसे रवानी दे
जान मुक़द्दर में थी जान से प्यारा न था
खुले असरार उस पर जिस्म के आहिस्ता आहिस्ता
इश्क़ वहशी है जहाँ देखेगा
आज तक उस की मोहब्बत का नशा तारी है
दिल का बुरा नहीं मगर शख़्स अजीब ढब का है
जो शजर सूख गया है वो हरा कैसे हो
सितारे इस क़दर देखे कि आँखें बुझ गईं अपनी
तिरी तलाश तो क्या तेरी आस भी न रहे
ज़बानें थक चुकीं पत्थर हुए कान
सीने में बे-क़रार हैं मुर्दा मोहब्बतें