वो ख़ुश-नसीब थे जिन्हें अपनी ख़बर न थी
याँ जब भी आँख खोलिए अख़बार देखिए
Faiz Ahmad Faiz
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छुप छुप के कहाँ तक तिरे दीदार मिलेंगे
सफ़र-ए-शौक़ है बुझते हुए सहराओं में
एक लम्हे में कटा है मुद्दतों का फ़ासला
दिल-आराम
अजनबी शहरों में तुझ को ढूँढता हूँ जिस तरह
उम्र भर अपने गिरेबाँ से उलझने वाले
वो मिरे पास है क्या पास बुलाऊँ उस को
उम्र जितनी भी कटी उस के भरोसे पे कटी
जो सामने था उस के ख़द-ओ-ख़ाल नहीं याद
वो मिरी सुब्हों का तारा वो मिरी रातों का चाँद
वो कौन है उसे सूरज कहूँ कि रंग कहूँ
कुछ न कुछ हो तो सही अंजुमन-आराई को