यूँ किस तरह बताऊँ कि क्या मेरे पास है
तू भी तो कोई रंग दिखा और देख ले
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अब न वो शोर न वो शोर मचाने वाले
मैं कि ख़ुश होता था दरिया की रवानी देख कर
अब अपने चेहरे पर दो पत्थर से सजाए फिरता हूँ
तमाम उम्र हवा फांकते हुए गुज़री
दिल ओ दिमाग़ में एहसास-ए-ग़म उभार दिया
चुप के आलम में वो तस्वीर सी सूरत उस की
दिल ओ निगाह का ये फ़ासला भी क्यूँ रह जाए
तुम ही क्या जज़्ब हो गए मुझ में
वो मिरी सुब्हों का तारा वो मिरी रातों का चाँद
जाने किस सम्त से हवा आई
बहुत शर्मिंदा हूँ इबलीस से मैं
दूर से देख के मैं ने उसे पहचान लिया