ये समझ के माना है सच तुम्हारी बातों को
इतने ख़ूब-सूरत लब झूट कैसे बोलेंगे
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ये चाँद ही तिरी झोली में आ पड़े शायद
गुज़र ही जाएगी 'शहज़ाद' जो गुज़रनी है
देख अब अपने हयूले को फ़ना होते हुए
अगरचे कार-ए-दुनिया कुछ नहीं है
ये अलग बात ज़बाँ साथ न दे पाएगी
जब आफ़्ताब न निकला तो रौशनी के लिए
पैरहन चुस्त हवा सुस्त खड़ी दीवारें
यूँ किस तरह बताऊँ कि क्या मेरे पास है
लगे थे ग़म तुझे किस उम्र में ज़माने के
सुपुर्दगी का वो लम्हा कभी नहीं गुज़रा
उदास छोड़ गए कश्तियों को साहिल पर
सब की तरह तू ने भी मिरे ऐब निकाले