तुम ही क्या जज़्ब हो गए मुझ में
नाम लेता हूँ बार बार अपना
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जुलते हैं इक चराग़ की लौ से कई चराग़
गुज़रने ही न दी वो रात मैं ने
हमारे पेश-ए-नज़र मंज़िलें कुछ और भी थीं
जो दिल में खटकती है कभी कह भी सकोगे
वो मिरी सुब्हों का तारा वो मिरी रातों का चाँद
हाल उस का तिरे चेहरे पे लिखा लगता है
इस राह से गुज़रे थे कभी अहल-ए-नज़र भी
मंज़िल है कठिन दिल बहुत आराम-तलब है
इसी बाइस ज़माना हो गया है उस को घर बैठे
यूँ तो हम अहल-ए-नज़र हैं मगर अंजाम ये है
दिल ओ निगाह का ये फ़ासला भी क्यूँ रह जाए
छोड़ने मैं नहीं जाता उसे दरवाज़े तक