ये और बात इसे ज़िंदगी न कह पाएँ
वगरना आज भी हम जी रहे हैं जीने को
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बुझ गई शम्अ कटी रात गई सब महफ़िल
कहीं भी साया नहीं किस तरफ़ चले कोई
नींद आए तो अचानक तिरी आहट सुन लूँ
अब भी वही दिन रात हैं लेकिन फ़र्क़ ये है
मैं गुल-ए-ख़ुश्क हूँ लम्हे में बिखर सकता हूँ
वो जा चुका है तो क्यूँ बे-क़रार इतने हो
जाने किस सम्त से हवा आई
मैं तिरा कुछ भी नहीं हूँ मगर इतना तो बता
दिल ओ निगाह का ये फ़ासला भी क्यूँ रह जाए
जुलते हैं इक चराग़ की लौ से कई चराग़
तलाश करनी थी इक रोज़ अपनी ज़ात मुझे
चाहे अब आप भी मुझे आसेब ही कहें