बुझ गई शम्अ कटी रात गई सब महफ़िल
अब अकेले ही कटेगा सफ़र-ए-परवाना
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ख़बर नहीं कि ख़ला किस जगह पे हो मौजूद
इस भरे शहर में आराम मैं कैसे पाऊँ
दिल भी तो इक दयार है रौशन हरा-भरा
सफ़र-ए-शौक़ है बुझते हुए सहराओं में
कहीं भी साया नहीं किस तरफ़ चले कोई
गामज़न
आगे निकल गए वो मुझे देखते हुए
उम्र जितनी भी कटी उस के भरोसे पे कटी
आज तक उस की मोहब्बत का नशा तारी है
मुंतज़िर दश्त-ए-दिल-ओ-जाँ है कि आहू आए
आँख उठा के मेरी सम्त अहल-ए-नज़र न देख पाए
जिस ने तिरी आँखों में शरारत नहीं देखी