चाहे अब आप भी मुझे आसेब ही कहें
ख़ुद मुंतख़ब क्या है ये उजड़ा हुआ मकाँ
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उदास छोड़ गए कश्तियों को साहिल पर
जब आफ़्ताब न निकला तो रौशनी के लिए
कभी कभी छलक उठता है आब ओ रंग उन का
जिस से दो रोज़ भी खुल कर न मुलाक़ात हुई
हुज़ूर-ए-हुस्न ये दिल कासा-ए-गदाई है
आप भी नहीं आए नींद भी नहीं आई
रुख़्सत हुआ तो आँख मिला कर नहीं गया
चुप के आलम में वो तस्वीर सी सूरत उस की
बाग़ का बाग़ उजड़ गया कोई कहो पुकार कर
दिल-आराम
जहाँ में हम ने किसी से भी खुल के बात न की
मैं अकेला हूँ यहाँ मेरे सिवा कोई नहीं