चाहता हूँ कि हो परवाज़ सितारों से बुलंद
और मिरे हिस्से में टूटे हुए बाज़ू आए
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सफ़र भी दूर का है और कहीं नहीं जाना
अब मिरा दर्द मरी जान हुआ जाता है
इसी बाइस ज़माना हो गया है उस को घर बैठे
आरज़ू की बे-हिसी का गर यही आलम रहा
मंज़िल है कठिन दिल बहुत आराम-तलब है
वाक़िआ ये है कि रस्ता और वीराँ हो गया
दिल-ए-फ़सुर्दा उसे क्यूँ गले लगा न लिया
ज़मीन नाव मिरी बादबाँ मिरे अफ़्लाक
जिस के बाइस अभी ठंडक है मिरे सीने में
लेते हैं लोग साँस भी अब एहतियात से
चराग़ ख़ुद ही बुझाया बुझा के छोड़ दिया
तन्हाई में आ जाती हैं हूरें मिरे घर में