अब भी वही दिन रात हैं लेकिन फ़र्क़ ये है
पहले बोला करते थे अब सुनते हैं
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ये अलग बात ज़बाँ साथ न दे पाएगी
आरज़ू की बे-हिसी का गर यही आलम रहा
तुझ में कस-बल है तो दुनिया को बहा कर ले जा
अजब नहीं कि इसी बात पर लड़ाई हो
अक़्ल हर बात पे हैराँ है इसे क्या कहिए
छोड़ने मैं नहीं जाता उसे दरवाज़े तक
वैसे तो इक दूसरे की सब सुनते हैं
हुस्न बाज़ार की ज़ीनत है मगर है तो सही
मेरी रुस्वाई में वो भी हैं बराबर के शरीक
ख़बर नहीं कि ख़ला किस जगह पे हो मौजूद
वो जा चुका है तो क्यूँ बे-क़रार इतने हो