नींद आए तो अचानक तिरी आहट सुन लूँ
जाग उठ्ठूँ तो बदन से तिरी ख़ुश्बू आए
Gulzar
Javed Akhtar
Habib Jalib
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Allama Iqbal
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Parveen Shakir
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हमारे शहर में है वो गुरेज़ का आलम
ये समझ के माना है सच तुम्हारी बातों को
सफ़र भी दूर का है और कहीं नहीं जाना
मैं और तू
बिखरे हुए तारों से मिरी रात भरी है
वाक़िआ कुछ भी हो सच कहने में रुस्वाई है
करो बे-नूर महफ़िल-ए-इमरोज़
रूह की आग
शायद लोग इसी रौनक़ को गर्मी-ए-महफ़िल कहते हैं
एक दरख़्त
हम अपने हाल पर ख़ुद रो दिए हैं
रौशन भी करोगे कभी तारीकी-ए-शब को