अपने ही अक्स को पानी में कहाँ तक देखूँ
हिज्र की शाम है कोई तो लब-ए-जू आए
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तेरे घर की भी वही दीवार थी दरवाज़ा था
बिखरे हुए तारों से मिरी रात भरी है
तिरी तलाश तो क्या तेरी आस भी न रहे
मुसाफ़िर हो तो सुन लो राह में सहरा भी आता है
जब उस की ज़ुल्फ़ में पहला सफ़ेद बाल आया
वो मिरी सुब्हों का तारा वो मिरी रातों का चाँद
उस को ख़बर हुई तो बदल जाएगा वो रंग
तुम्हारी बज़्म से भी उठ चले हैं दीवाने
जवाज़ कोई अगर मेरी बंदगी का नहीं
यूँ किस तरह बताऊँ कि क्या मेरे पास है
उठीं आँखें अगर आहट सुनी है
हैराँ हूँ हासिदों को पता कैसे चल गया