हर तरफ़ फैली हुई थी रौशनी ही रौशनी
वो बहारें थीं कि अब के बाग़ में रस्ता न था
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तख़्ता-ए-दार पे चाहे जिसे लटका दीजे
हज़ार चेहरे हैं मौजूद आदमी ग़ाएब
रहने दिया न उस ने किसी काम का मुझे
वाक़िआ कुछ भी हो सच कहने में रुस्वाई है
मुसाफ़िर हो तो सुन लो राह में सहरा भी आता है
मेरी ख़ातिर देर न करना और सफ़र करते जाना
न मिले वो तो तलाश उस की भी रहती है मुझे
हैराँ हूँ हासिदों को पता कैसे चल गया
वाक़िआ कोई न जन्नत में हुआ मेरे ब'अद
जैसे मुँह-बंद कली रात के वीराने में
बिगड़ी हुई इस शहर की हालत भी बहुत है
झूटी बातें रहने दो