हौसला है तो सफ़ीनों के अलम लहराओ
बहते दरिया तो चलेंगे इसी रफ़्तार के साथ
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इस राह से गुज़रे थे कभी अहल-ए-नज़र भी
पुराने दोस्तों से अब मुरव्वत छोड़ दी हम ने
पैकर-ए-गुल आसमानों के लिए बेताब है
वो ख़ुश-नसीब थे जिन्हें अपनी ख़बर न थी
अजब नहीं कि इसी बात पर लड़ाई हो
कुछ न कुछ हो तो सही अंजुमन-आराई को
अब मिरा दर्द मरी जान हुआ जाता है
न मैं ने दस्त-शनासी का फिर किया दावा
तुम ही क्या जज़्ब हो गए मुझ में
यूँ तिरी याद में दिन रात मगन रहता हूँ
मैं गुल-ए-ख़ुश्क हूँ लम्हे में बिखर सकता हूँ
इस भरे शहर में आराम मैं कैसे पाऊँ