यूँ तिरी याद में दिन रात मगन रहता हूँ
दिल धड़कना तिरे क़दमों की सदा लगता है
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किस लिए वो शहर की दीवार से सर फोड़ता
डूब जाता है दमकता हुआ सूरज लेकिन
आता है ख़ौफ़ आँख झपकते हुए मुझे
दिल ओ दिमाग़ में एहसास-ए-ग़म उभार दिया
अस्ल में हूँ मैं मुजरिम मैं ने क्यूँ शिकायत की
मैं चाहता हूँ हक़ीक़त-पसंद हो जाऊँ
तू कुछ भी हो कब तक तुझे हम याद करेंगे
शुमार मैं न करूँगा फ़िराक़ के शब ओ रोज़
जिस को जाना ही नहीं उस को ख़ुदा क्यूँ मानें
सब की तरह तू ने भी मिरे ऐब निकाले
वो मिरी सुब्हों का तारा वो मिरी रातों का चाँद
दुनिया में अंधेरों के सिवा और रहा क्या