शुमार मैं न करूँगा फ़िराक़ के शब ओ रोज़
वहीं से बात चलेगी जहाँ से टूटी थी
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न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे
जिस के बाइस अभी ठंडक है मिरे सीने में
कुछ देखने की दिल में तमन्ना नहीं बाक़ी
बिखरे हुए तारों से मिरी रात भरी है
वो मिरी सुब्हों का तारा वो मिरी रातों का चाँद
हज़ार चेहरे हैं मौजूद आदमी ग़ाएब
चुप के आलम में वो तस्वीर सी सूरत उस की
ख़ुशा वो दर्द के लम्हे कि तेरे जाने पर
दिल ओ नज़र पे तिरे बाद क्या नहीं गुज़रा
हर दम तिरी शबीह थी आँखों के सामने
अस्ल में हूँ मैं मुजरिम मैं ने क्यूँ शिकायत की
मुसाफ़िर हो तो सुन लो राह में सहरा भी आता है