पैकर-ए-गुल आसमानों के लिए बेताब है
ख़ाक कहती है कि मुझ सा दूसरा कोई नहीं
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दिल ओ निगाह का ये फ़ासला भी क्यूँ रह जाए
पास रह कर भी न पहचान सका तू मुझ को
शायद लोग इसी रौनक़ को गर्मी-ए-महफ़िल कहते हैं
मैं गुल-ए-ख़ुश्क हूँ लम्हे में बिखर सकता हूँ
हाल उस का तिरे चेहरे पे लिखा लगता है
जहाँ में हम ने किसी से भी खुल के बात न की
नक़्श-ए-हैरत बन गई दुनिया सितारों की तरह
सोता जागता साया
तिरा मैं क्या करूँ ऐ दिल तुझे कुछ भी नहीं आता
सूरज की किरन देख के बेज़ार हुए हो
दिल सा वहशी कभी क़ाबू में न आया यारो
हिज्र की रात मिरी जाँ पे बनी हो जैसे