आज़ाद था मिज़ाज तो क्यूँ घर बना लिया
अब उम्र भर यही दर-ओ-दीवार देखिए
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दिल-आराम
यूँ किस तरह बताऊँ कि क्या मेरे पास है
वैसे तो इक दूसरे की सब सुनते हैं
शम्अ जलते ही यहाँ हश्र का मंज़र होगा
एक से मंज़र देख देख कर आँखें दुखने लगती हैं
हर तरफ़ फैली हुई थी रौशनी ही रौशनी
जल भी चुके परवाने हो भी चुकी रुस्वाई
अगर दो दिल कहीं भी मिल गए हैं
मैं जो रोता हूँ तो कहते हो कि ऐसा न करो
खुले असरार उस पर जिस्म के आहिस्ता आहिस्ता
सफ़र-ए-शौक़ है बुझते हुए सहराओं में
तुम्हारी आँख में कैफ़िय्यत-ए-ख़ुमार तो है