पत्थर न फेंक देख ज़रा एहतियात कर
है सत्ह-ए-आब पर कोई चेहरा बना हुआ
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इस आस पे सैलाब के सीने पे रवाँ हूँ
मेरी रुस्वाई में वो भी हैं बराबर के शरीक
हिज्र की रात मिरी जाँ पे बनी हो जैसे
यूँ तर्क-ए-तअल्लुक़ की क़सम खाए हुए हों
ज़रा लबों के तबस्सुम से बज़्म गर्माएँ
हम जो दस्तक कभी देते थे सबा की मानिंद
अब तो इंसान की अज़्मत भी कोई चीज़ नहीं
अजनबी शहरों में तुझ को ढूँढता हूँ जिस तरह
मुसाफ़िर हो तो सुन लो राह में सहरा भी आता है
यूँ तो हम अहल-ए-नज़र हैं मगर अंजाम ये है
आप भी नहीं आए नींद भी नहीं आई
तख़्ता-ए-दार पे चाहे जिसे लटका दीजे