फ़लक से घूरती हैं मुझ को बे-शुमार आँखें
न चैन आता है जी को न रात ढलती है
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कोई बताओ कि किस के लिए तलाश करें
तुम्हारी आँख में कैफ़िय्यत-ए-ख़ुमार तो है
पैकर-ए-गुल आसमानों के लिए बेताब है
अन-कही
उड़ते हुए आते हैं अभी संग-ए-तमन्ना
हमारे पेश-ए-नज़र मंज़िलें कुछ और भी थीं
मैं सुन रहा हूँ मगर दूसरों को कैसे सुनाऊँ
हुज़ूर-ए-हुस्न ये दिल कासा-ए-गदाई है
रौशन भी करोगे कभी तारीकी-ए-शब को
जीने मरने के दरमियान एक साअत
यूँ किस तरह बताऊँ कि क्या मेरे पास है
घर जला लेता है ख़ुद अपने ही अनवार से तू