ख़ामुशी ही में सही पर कभी इज़हार तो कर
इस क़दर ज़ब्त से सीना तिरा फट जाएगा
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तुम्हारी आँख में कैफ़िय्यत-ए-ख़ुमार तो है
जहाँ में हम ने किसी से भी खुल के बात न की
उस को ख़बर हुई तो बदल जाएगा वो रंग
जो दिल में खटकती है कभी कह भी सकोगे
खुले असरार उस पर जिस्म के आहिस्ता आहिस्ता
वो कौन है उसे सूरज कहूँ कि रंग कहूँ
तेरे घर की भी वही दीवार थी दरवाज़ा था
उठीं आँखें अगर आहट सुनी है
ये भी सच है कि नहीं है कोई रिश्ता तुझ से
सुपुर्दगी का वो लम्हा कभी नहीं गुज़रा
दिल का बुरा नहीं मगर शख़्स अजीब ढब का है
आता है ख़ौफ़ आँख झपकते हुए मुझे