शायद इसी बाइस हुईं पत्थर मिरी आँखें
जो कुछ कि मुझे देखना था देख लिया है
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थोड़ा सा रंग रात के चेहरे पे डाल दो
सुपुर्दगी का वो लम्हा कभी नहीं गुज़रा
ये भी सच है कि नहीं है कोई रिश्ता तुझ से
सब्त है चेहरों पे चुप बन में अंधेरा हो चुका
मैं अपनी जाँ में उसे जज़्ब किस तरह करता
इस दोशीज़ा मिट्टी पर नक़्श-ए-कफ़-ए-पा कोई भी नहीं
ज़रा सा ग़म हुआ और रो दिए हम
उड़ते हुए आते हैं अभी संग-ए-तमन्ना
तख़्ता-ए-दार पे चाहे जिसे लटका दीजे
मुसाफ़िर हो तो सुन लो राह में सहरा भी आता है
वीरान तो नहीं शब-ए-तारीक की फ़ज़ा
हौसला है तो सफ़ीनों के अलम लहराओ