ज़रा सा ग़म हुआ और रो दिए हम
बड़ी नाज़ुक तबीअत हो गई है
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कभी कभी छलक उठता है आब ओ रंग उन का
जो शजर सूख गया है वो हरा कैसे हो
कैसे गुज़र सकेंगे ज़माने बहार के
प्यार के रंग-महल बरसों में तय्यार हुए
मैं कि ख़ुश होता था दरिया की रवानी देख कर
ये किस के आने के इम्काँ दिखाई देते हैं
आँखें न खुलें नूर के सैलाब में मेरी
बाग़ का बाग़ उजड़ गया कोई कहो पुकार कर
आगे निकल गए वो मुझे देखते हुए
बस यही होगा कि दीवाना कहेंगे अहल-ए-बज़्म
दश्त में कैसी दीवारें
न मिले वो तो तलाश उस की भी रहती है मुझे