न सही जिस्म मगर ख़ाक तो उड़ती फिरती
काश जलते न कभी बाल-ओ-पर-ए-परवाना
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अपनी तस्वीर को आँखों से लगाता क्या है
ये न हो वो भूलने वाला भुला देना पड़े
उदास छोड़ गए कश्तियों को साहिल पर
देखने उस को कोई मेरे सिवा क्यूँ आए
अगरचे कार-ए-दुनिया कुछ नहीं है
मंज़िल है कठिन दिल बहुत आराम-तलब है
हमारे शहर में है वो गुरेज़ का आलम
दिल ओ निगाह का ये फ़ासला भी क्यूँ रह जाए
ज़मीं अपने लहू से आश्ना होने ही वाली है
तुम कहे जाते हो ऐसी फ़स्ल-ए-गुल आई नहीं
तुम्हारी आँख में कैफ़िय्यत-ए-ख़ुमार तो है
वो मिरी सुब्हों का तारा वो मिरी रातों का चाँद