हम नाक़िसों के दौर में कामिल हुए तो क्या

हम नाक़िसों के दौर में कामिल हुए तो क्या

उजड़े हुए इलाक़े के आमिल हुए तो क्या

हम को तो इफ़्तिख़ार है पैग़ाम-ए-यार पर

जिबरील आसमान से नाज़िल हुए तो क्या

मुद्दत से फिर रही है छुरी जान-ए-ज़ार पर

हम आज तेग़-ए-यार से बिस्मिल हुए तो क्या

दाग़ों में उस के दाग़-ए-मोहब्बत की बू कहाँ

लाले के फूल हम से मुक़ाबिल हुए तो क्या

राहत नसीब हम को हुई रहमत ऐ करीम

टकरा के सर बहिश्त में दाख़िल हुए तो क्या

फूलों में ज़र लुटा न गुल-ए-सुर्ख़ का कभी

बे-फ़ैज़ लोग रौनक़-ए-महफ़िल हुए तो क्या

उस की सिफ़त यही है कि बे-माँगे दी मुराद

दरगाह में करीम के साइल हुए तो क्या

आसान हैं जो नाख़ुन-ए-तक़दीर तेज़ है

मतलब हमारे उक़्दा-ए-मुश्किल हुए तो क्या

मुर्दों को ज़िंदा कीजिए नाम-आवरी ये है

ईसा बनाओ आप को क़ातिल हुए तो क्या

हर-दम चराग़-ए-दिल की इधर लौ लगी रहे

हम अपनी यादगार से ग़ाफ़िल हुए तो क्या

होगा न एक रंग ख़िज़ान-ओ-बहार का

बूढ़े अगर जवानों के शामिल हुए तो क्या

अपने मआल-ए-कार से जब बे-ख़बर हुए

हाफ़िज़ हुए तो ख़ाक जो फ़ासिल हुए तो क्या

तन से मफ़ारिक़त नहीं करती तब-ए-फ़िराक़

ता'वीज़ भी गले में हमाइल हुए तो क्या

ऐ 'बहर' बाग़बान की मिन्नत बला करे

दो-चार फूल बाग़ से हासिल हुए तो क्या

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