तर्क-ए-मय ही समझ इसे नासेह
इतनी पी है कि पी नहीं जाती
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वो दिल में रहते हैं दिल का निशाँ नहीं मा'लूम
छुपे हैं लाख हक़ के मरहले गुम-नाम होंटों पर
मुझ को साक़ी ने जो रुख़्सत किया मय-ख़ाने से
पी शौक़ से वाइज़ अरे क्या बात है डर की
उन की तस्वीर देख कर
तकमील-ए-शबाब चाहता हूँ
दिल की बर्बादियों पे नाज़ाँ हूँ
उन्हें अपने दिल की ख़बरें मिरे दिल से मिल रही हैं
आज फिर गर्दिश-ए-तक़दीर पे रोना आया
सिदक़-ओ-सफ़ा-ए-क़ल्ब से महरूम है हयात
मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
बे-कसी से मरने मरने का भरम रह जाएगा