दिल की बर्बादियों पे नाज़ाँ हूँ
फ़तह पा कर शिकस्त खाई है
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हर चीज़ नहीं है मरकज़ पर इक ज़र्रा इधर इक ज़र्रा उधर
अभी जज़्बा-ए-शौक़ कामिल नहीं है
बे-ख़ुदी है न होशियारी है
कैसे कह दूँ कि मुलाक़ात नहीं होती है
यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है
तुम फिर उसी अदा से अंगड़ाई ले के हँस दो
मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
न पैमाने खनकते हैं न दौर-ए-जाम चलता है
क़स्र वीरान हुआ जाता है
बदलती जा रही है दिल की दुनिया
हज़ार क़ैद-ए-जवाँ से छुट कर बहार का आसरा करेंगे
हम से मय-कश जो तौबा कर बैठें