कैसे कह दूँ कि मुलाक़ात नहीं होती है
रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है
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ग़म-ए-हयात भी आग़ोश-ए-हुस्न-ए-यार में है
मौसम-ए-गुल साथ ले कर बर्क़ ओ दाम आ ही गया
उठी फिर दिल में इक मौज-ए-शबाब आहिस्ता आहिस्ता
शोख़ नज़रों में जो शामिल बरहमी हो जाएगी
क्या हसीं ख़्वाब मोहब्बत ने दिखाया था हमें
कोई दिलकश नज़ारा हो कोई दिलचस्प मंज़र हो
इश्क़ की चिंगारियों को फिर हवा देने लगे
आदमी न इतना भी दूर हो ज़माने से
यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है
उठा जो मीना-ब-दस्त साक़ी रही न कुछ ताब-ए-ज़ब्त बाक़ी
बात जब है ग़म के मारों को जिला दे ऐ 'शकील'
हज़ार क़ैद-ए-जवाँ से छुट कर बहार का आसरा करेंगे