बात जब है ग़म के मारों को जिला दे ऐ 'शकील'
तू ये ज़िंदा मय्यतें मिट्टी में दाब आया तो क्या
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जीने वाले क़ज़ा से डरते हैं
कितनी दिल-कश हैं तिरी तस्वीर की रानाइयाँ
ज़लज़ला
रूह को तड़पा रही है उन की याद
सुब्ह का अफ़्साना कह कर शाम से
मिरी ज़िंदगी पे न मुस्कुरा मुझे ज़िंदगी का अलम नहीं
हुई हम से ये नादानी तिरी महफ़िल में आ बैठे
हंगामा-ए-ग़म से तंग आ कर इज़हार-ए-मसर्रत कर बैठे
नियाज़-ओ-नाज़ की ये शान-ए-ज़ेबाई नहीं जाती
भेज दी तस्वीर अपनी उन को ये लिख कर 'शकील'
दिल मरकज़-ए-हिजाब बनाया न जाएगा
कोई दिलकश नज़ारा हो कोई दिलचस्प मंज़र हो