दिल की तरफ़ 'शकील' तवज्जोह ज़रूर हो
ये घर उजड़ गया तो बसाया न जाएगा
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वो हवा दे रहे हैं दामन की
लम्हात-ए-याद-ए-यार को सर्फ़-ए-दुआ न कर
सुब्ह का अफ़्साना कह कर शाम से
जादा-ए-इश्क़ में गिर गिर के सँभलते रहना
अब तक शिकायतें हैं दिल-ए-बद-नसीब से
उन के बग़ैर हम जो गुलिस्ताँ में आ गए
जज़्बात की रौ में बह गया हूँ
काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन को बचा कर
मेरी दीवानगी नहीं जाती
लतीफ़ पर्दों से थे नुमायाँ मकीं के जल्वे मकाँ से पहले
दिल लज़्ज़त-ए-निगाह करम पा के रह गया
अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे