लम्हात-ए-याद-ए-यार को सर्फ़-ए-दुआ न कर
आते हैं ज़िंदगी में ये आलम कभी कभी
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सर-निगूँ कर ही दिया शौक़-ए-जबीं-साई ने
हुई हम से ये नादानी तिरी महफ़िल में आ बैठे
जब कभी हम तिरे कूचे से गुज़र जाते हैं
वो यूँ खो के मुझे पाया करेंगे
ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
ऐ इश्क़ ये सब दुनिया वाले बे-कार की बातें करते हैं
मुझे भूल जा
दिल वही दिल जिसे नाशाद किए जाता हूँ
जो दिल पे गुज़रती है वो समझा नहीं सकते
तम्हीद-ए-सितम और है तकमील-ए-जफ़ा और
वो हवा दे रहे हैं दामन की
तिरे बग़ैर अजब बज़्म-ए-दिल का आलम है